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सहरा का पता दे न समंदर का पता दे / 'नश्तर' ख़ानक़ाही

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सहरा का पता दे न समंदर का पता दे
अच्छा हो के अब मुझ को मेरे घर का पता दे

है कौन मेरा दुश्मन-ए-जाँ मुझ को ख़बर है
कब मैं न कहा मुझ को सितम-गर का पता दे

ये रात अमावस की तो काटे नहीं कटती
अब आ के मुझे माह-ए-मुनव्वर का पता दे

खतरे में पड़ी जाती है मक़तूल की पहचान
शायद ही कोई शहर में अब सर का पता दे

बे-सम्त-ओ-जेहत भीड़ में शामिल न हो उस से
उम्मत का पता पूछ पयम्बर का पता दे

मैदान है ख़ाली कोई परचम है न सर है
है कौन जो खोए हुए लश्कर का पता दे

अब आख़िरी तारा भी हुआ आँख से ओझल
ऐ आसमाँ अब सुब्ह के मंज़र का पता दे