सहरा की रात / ओलझस सुलैमानफ़ / फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
कहीं भी शबनम<ref>ओस</ref> कहीं नहीं है
अजब केः शबनम कहीं नहीं है
न सर्द ख़ुर्शीद<ref>सूरज</ref> की जबीं<ref>मस्तक</ref> पर
किसी के रुख़<ref>चेहरे</ref> पर न आस्तीं पर
ज़रा-सी शबनम कहीं नहीं है
पिसे हुए पत्थरों की मौजें
ख़मोश-ओ-साकिन<ref>स्थिर</ref>
हरारते-माहे-नीम शब<ref>आधी रात के चाँद की गरमी</ref> में सुलग रही है
और शबनम कहीं नहीं है
बरह्ना-पा ग़ोल<ref>नंगे पैर झुण्ड</ref> गीदड़ों के
लगा रहे हैं बनों में ठट्ठे
केः आज शबनम कहीं नहीं है
बबूल के इस्तख़्वाँ<ref>हड्डियाँ</ref> के ढाँचे
पुकारते हैं
नहीं है शबनम, कहीं नहीं है
सफ़ैद, धुँधलाई रौशनी में
है दश्त<ref>जंगल</ref> की छातियाँ बरह्ना<ref>नग्न</ref>
तरस रही है जो हुस्ने-इनसाँ लिए केः शबनम का एक क़तरा
कहीं पे बरसे
ये चाँद भी सर्द ही रहेगा
उफ़क़<ref>क्षितिज</ref> पेः जब सुब्ह का किनारा
किसी किरन से दहक उठेगा
केः एक दर्मांदा राहरौ<ref>थका हुआ पथिक</ref> की
जबीं पे शबनम का हाथ चमके