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सहरा में खड़ा एक शजर देखते रहे / अमरेन्द्र
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सहरा में खड़ा एक शजर देखते रहे
वह झूठ था आँखों से मगर देखते रहे
जिसकी थी तुमको खोज वो आ के चला गया
तुम बेखुदी में डूबे किधर देखते रहे
अब कौन कहे लौटना होगा-न-होगा फिर
मुड़-मुड़ के मुझसे छूटा वो घर देखते रहे
कर-कर के इन्तजार भी गाँव सो चुका होगा
रुक-रुक के अगर सारा शहर देखते रहे
ये ताजो-महल सबको तो होते नहीं नसीब
हम दूर से ही हिलते चँवर देखते रहे
मुड़ कर भी नहीं देखा जब वो राह में मिला
जिसको कि हम तो सारी उमर देखते रहे
किस्ती ये तुम्हारी लगेगी पार क्या अमरेन्द्र
दरिया का तुम जो मौजो लहर देखते रहे।