सहर के जो होने पे रोया था सपना / मधुभूषण शर्मा 'मधुर'
सहर के जो होने पे रोया था सपना ,
वो महबूब बाहों में सोया था सपना !
गया टूटता ज़िन्दगी का वो धागा ,
कि जिसमें ख़ुदा ने पिरोया था सपना !
दफ़न के लिए थी वो क्या लाश कोई ,
कि जो उम्र भर हमने ढोया था सपना !
रहे ज़िन्दगी भर उसे ढ़ूढ़ते हम ,
लड़कपन में हमने जो खोया था सपना !
ज़रा इस ज़मीं की ये तासीर देखो ,
कि काटी हक़ीक़त जो बोया था सपना !
गया धूप में सूखता दिन-ब-दिन जो ,
‘मधुर’ चाँदनी में भिगोया था सपना !