भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सहर से रात की सरगोशियाँ बहार की बात / मख़दूम मोहिउद्दीन

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सहर से रात की सरगोशियाँ<ref>कानाफ़ूसी</ref> बहार की बात
जहाँ में आम हुई चश्मे इन्तेज़ार की बात ।

दिलों की तिश्नगी जितनी, दिलों का ग़म जितना
उसी कदर है ज़माने में हुस्ने यार की बात ।

जहाँ भी बैठे हैं जिस जा<ref>जगह</ref> भी रात मय पी है
उन्हीं की आँखों के क़िस्से उन्हीं के प्यार की बात ।

चमन की आँख भर आई, कली का दिल धड़का
लबों पे आई है जब भी किसी क़रार की बात ।

ये ज़र्द-ज़र्द उजाले ये रात-रात का दर्द
यही तो रह गई अब जाने बेक़रार की बात ।

तमाम उम्र चली है, तमाम उम्र चले
इलाही<ref>ऐ ईश्वर</ref> ख़त्म न हो यारे ग़मगुसार<ref>प्रेमिका के दुख</ref> की बात ।

शब्दार्थ
<references/>