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सहल यूँ राहे-ज़िंदगी की है / फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
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सहल यूँ राहे-ज़िन्दगी की है
हर क़दम हमने आशिक़ी की है
हमने दिल में सजा लिए गुलशन
जब बहारों ने बेरुख़ी की है
ज़ह्र से धो लिए हैं होंठ अपने
लुत्फ़े-साक़ी<ref>साक़ी से मिलने वाला आनंद</ref> ने जब कमी की है
तेरे कूचे में बादशाही की
जब से निकले गदागरी<ref>भीख माँगना</ref> की है
बस वही सुर्ख़रू हुआ जिसने
बह्रे-ख़ूँ में शनावरी<ref>तैरना</ref> की है
"जो गुज़रते थे दाग़ पर सदमे"
अब वही कैफ़ियत सभी की है
लंदन, 1979
शब्दार्थ
<references/>