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सहस्र-मुख पर विजय / प्रतिभा सक्सेना

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"अभिमान न करना सोच कि तुम जीते,
हारे को हरा लिया तो ऐसा क्या!
यदि शौर्य दिखाना है तो दिखलाओ, अभी शेष रावण सहस्र-मुख का!"

"जीतूंगा पहले उस सहस्र-मुख को, जानकी, तुम्हारे सम्मुख चलो अभी,
वीरों सुभटों की निज सेना लेकर, बढ़ता हूं, रहना तुम पुष्पक में ही!"
  
हो गया प्रयाण नगाड़े गूँज उठे, अंबर तक रोर उठा कि सुभट कितने,
जय-नादों से नभ के पट फटते थे, आवेश बढ़ा इतना न रहा बस में।
था सीमाहीन उछाह, वीर लक्षमण, हनुमान प्रखर सुग्रीव आदि निकले
दल के दल वानर ऋक्ष आदि वनचर, राम का काम जानकर साथ चले,!

जब सुना सहसमुख ने कि सैन्य लेकर, मुझसे आए हैं रामचंद्र भिड़ने!
तब अट्टहास से गूँज उठा अंबर,वह उठा कि देखूँ भट आए कितने!
विस्मित सहस्रमुख आगे बढ़ आया, ये तुच्छ जीव आगए यहाँ मरने!
आ गई दया, इन विवश वनचरों की, हो जाय न हत्या मुझसे पल भर में!

"इनका वध तो मेरा उद्देश्य नहीं, क्यों इन्हें माध्यम बना रहा है नर?"
हुँकार भरी ऐसी कि सभी सेना जा पड़ी, पुनः उस सागर के तट पर!
पुष्पक से ही ललकार राम बोले, "ऱण हेतु यहाँ आया हूँ सहसानन,
इन हाथों से ही जीता है मैंने, वह राक्षस कुल का दश मुख का रावण!"

"वह बेचारा, उसको तो ले बैठा, उसका ही शाप लौट जा तू बालक!
क्यों व्यर्थ बजाता गाल यहाँ आकर, अपने पुर में बस, ले जीवन के सुख!"

मेरा तेरा तो बैर नहीं कुछ भी, फिर प्रतिद्वन्दी मेरा तू, नहीं कभी!
आश्चर्य मुझे तू क्यों आगया यहाँ रथ में लेकर युवती पत्नी को भी?

"मै आया तुझको जीत समर मेंअपना शौर्य सिद्ध करने,
अब बात न कर आगे बढ़ आ, दिखला दे, रण कौशल अपने!"

"तो यही सही!" भिड़ गए राम, भिड़ गया प्रचण्ड वीर दुर्दम,
दोनो ही निपुण और रण का उन्माद, बने भैरव- भीषण!

असियों की झन-झन, भालों के भीषण प्रहार, घन शर-वर्षण,
रथ से वैदेही देख रही, धरती पर चलता घटना-क्रम

आकाशों तक उड़ते, बादल से घिर आते शर-शस्त्र सघन,
भरते हुंकार, दिखा कौशल अस्त्रों का अति द्रुत संचालन!

भिड़ गए प्रबल दोनों योद्धा, कर एक-एक से प्रबल वार,
तन पर व्रण, रक्त नयन, धरती पर बहती अविरल रक्त धार!

हिल रहा गगन, हिल रही धरा, पातालों तक मचती हलचल,
कोई उन्नीस नहीं बैठा, चलता ही रहा युद्ध अविरल!

आ गया राम को याद, अगस्त्य मुनि ने दिव्यास्त्र प्रदान किया,
निश्चय इसके वध हेतु! तुरत स्तुति कर द्रुत संधान किया!

लपलपा रहा लपटों से जो, चीरता पवन अति वेगवान,
विद्युत सा कौंध चला हरने, उस मुख- सहस्र का महा-प्राण!

देखा-समझा नेत्रोन्मीलन कर, हो एकाग्र किया वन्दन,
फिर वाम हस्त में ग्रहण कर लिया उसने उस शर को तत्क्षण!

पहले तो नभ में घुमा बनाया सरसर एक अग्नि-मण्डल,
फिर जंघा पर रख तोड़ दिया उसको सहस्र-मुख ने निज बल!

भीषण रव करता हुआ धरा पर खण्ड-खण्ड होकर बिखरा
वे खण्ड-प्रचणड गिरे ज्यों ही अंगारों सी तप उठी धरा!

ये राम-बाण भी चूक रहे, होता दिव्यास्त्र प्रभाव रहित,
अपनी अबाध सामर्थ्य, अप्रतिम शौर्य और पौरुष की गति,

उस युद्ध क्षेत्र में खडे हुये हो तेजोहत
विस्मृत, कर्तव्य-विमूढ, जडित-से कुण्ठित-मति।

विस्मित से हो देखते राम, घट आज गया क्या यह अनरथ,
उस ओर साधता था सहस्रमुख अपना वार राम सम्मुख!

आरक्त हुआ आनन नयनों से निकली हो जैसे ज्वाला,
फिर त्वरित वेग से तीक्ष्ण बाण प्रत्यञ्चा को खींचा छोड़ा,

सरसर करता चक्रित होकर वह बेध गया आ वक्षस्थल
जा घुसा धरातल में तत्क्षण कड़ कड़ करता अति भीषण रव!

गिर पड़े राम होकर अचेत, देखा सहस्र-मुख ने बढ़कर,
उन्माद भरा कर उठा नृत्य जैसे हो ताण्डवरत शंकर!

हू-हू करते दौड़ते हुये उन्चास पवन,
टकराते भैरव स्वर दहाड़ते काल मेघ,
पर्वत से जैसे उड़ते हों आकाशों में,
खिंचती क्षितिजों के ओर-छोर तक वह्नि रेख!

भीषण-रव भीमकाय तरु उखड़-उखड़ गिरते
पृथ्वी कम्पित करते कि महा भूचाल उठे!
सीता के भ्रकुटि हुई टेढ़ी, उतरी विमान से
और प्रस्फुरित अधर तुरत ललकार उठे

"रुक-रुक रे चण्ड बण्ड दानव!",
सीता निनाद कर उठी तभी,
कानो में नाद गया जिस पल,
ताण्डव नर्तन रुक गया तभी!

कर में ले दिप्-दिप् खङ्ग-पाश,
भृकुटी कराल उन्मुक्त केश,
दृग से स्फुलिंग झरते झर-झर,
 धारे अति भीम कराल वेष।

यह कौन महाकाली सी प्रकटी
चकित सहस मुख देखरहा!
आकाश झनझना उठा,
कौंधती असि का वार अशेष रहा!

उडते क्षणाँश के साथ सहस-मुख के सिर
कट गिरे, भुजायें उड़-उड़ गिरीं धरा पर,
धाराओं में शोणित-प्रवाह बह निकला
रँग गई धरित्री रक्तवर्ण था अंबर!

रणभूमि जानकी रूप कराल धरे,
हो रही नृत्यरत मुक्त केश बिखरे!
सागर में जागे वड़वानल धक्-धक्,
उत्ताल तरंगें तोड़ रही थीं तट्,

हू-हू करते दौडे़ उन्चास पवन
टकराते भैरव स्वर, दहाड़ते घन!
 भीषण रव करते वृक्ष उखड़ गिरते,
मीलों ऊँची थीं सागर की लहरें,

 उठती दीवारें जल की घहरातीं
लहरें व्यालों-सी दौड-दौड आती!
पर्वत से उड़ते थे आकाशों में
लोहू की गन्ध भरी वातासों में!

सब चकित विभ्रमित से चुपचाप खडे़,
कुछ समझ न पाते से निरुपाय बडे़!
डाकिनियाँ भीषण अट्टहास करतीं
हाथों में खप्पर ले विचरण करतीं,
 
निकटस्थ क्षेत्र से जागी रणचण्डी,
चौंसठ योगिनियाँ अट्टहास करतीं
नर-शोणित से निज प्यास बुझाने को
तामसी रूप धर नर-बलि खाने को!

लेने नर-मेध यज्ञ की आहुतियाँ,
जैसे असंख्यरूपा विदेह-तनया!
नर-मुण्डों से करती कन्दुक क्रीड़ा,
अति रौद्र चण्डिका सी कराल सीता!

डोलती धरा, थर-थर आकाश कँपे,
कौंधे उठते औ जाते नेत्र झँपे!
सुर-मुनि विचलित, अब क्या घटनेवाला,
चण्डिका रूप जब धरे सौम्य बाला!

भयभीत देवगण विनयी हो झुकते,
क्षण को न ताण्डव-रत वे पग रुकते!
हे महादेवि अब शान्त- रूप दर्शन दो,
सुस्थिर हो जाय हुताशन मारुत जल,

हो शान्त देवि, अब शान्त, धरा व्याकुल
पृथ्वी माता फैलाये है आँचल!
कैसे स्थिर हो रहूँ बता, माँ धरणी,
वह राम पडे रण-भू में निर्जीवन,

कैसे अब शान्त रहूँ माँ तू ही कह दे,
यह शोक कहाँ रहने दे स्थिर-मन?
जैसे कि अमृत-कण छलक गये हों मुख से
राघव के नेत्र खुले कुछ विस्फारित से,

रणक्षेत्र देख विचलित मन डोल गया फिर,
सीता को देखा, उठे यंत्र-चालित से!
क्षण भर में सारी बातें कौंध गईं,
मिथिलेश जनक ने जो थीं कभी कहीं-

"प्रिय राम, सभी हैं शस्त्र सिद्ध जिसको, मैं कैसे उसे ब्याह दूं जिस-तिस को?
मति-धीर वीर ही इसे निभा पाए अन्यथा और तो इससे भय खाए!
जय-श्री उसकी है जहां रहे सीता, यह चली गई तो समझो सब बीता!
लौकिक तत्वों से नही डरेगी यह अपना विवेक जो कहे, करेगी यह!
यह बुद्धिमती है बड़ी मनस्वी है, युग-युग से तपती परम तपस्वी है!,
जो लगते है विरोधमय गुण-संगम, इसका व्यक्तित्व बना जाते अनुपम!"

सीता की क्रोध भरी देखी आँखें, विस्मित-विमूढ- से रामचन्द्र काँपे।
जुड गए हाथ," बस क्षमा करो सीता, पहले तुमने ही रावण को जीता,
मैं बुद्धि-भ्रमित, एकाकी और श्रमित, अब करो न मुझको और न यों दंडित १
तुम फलीभूत तप और साधना की अंतिम परिणति सीता,
वह शक्ति तुम्हीं थी जिसने सारा रण जीता!"

राम ने शीश झुकाया वन्दन में
फिर वचन कहे उनके अभिनन्दन में-

"दशमुख, सहस्र-मुख तुम से ही हारे,
अभिमान मुझे केवल भ्रम के मारे!
वन्दना कर रहा, क्षमा करो सीते,
मेरा भ्रम हरो, चिन्मयी शुभगीते!

श्री और शक्ति के रूप तुम्हारे ही,
गुण गरिमा औ ऐश्वर्य तुम्हारे ही!
चिर- वास करो मेरे अंतस्तल में,
मैं धन्य हो गया आ इस भूतल में!"

कपि, रिक्ष, रक्षजन, अभ्यागत ऋषिगण, कर जोड़ दंडवत् हो करते स्तवन -
श्री और शक्ति का संयुत रूप धरे, बस क्षमा, देवि,बस क्षमा, वचन उचरे!
ज्यों बीत गया हो कोई बुरा सपन, उत्पात शान्त हो गए तभी तत्क्षण!
मैथिली शान्तचित् त्रय तेजों से युत्, देखते राम के साथ सभी विस्मित!