सहाफी से / हबीब जालिब
कौम की बेहतरी का छोड़ ख़्याल
फिक्र-ए-तामीर-ए-मुल्क दिल से निकाल
तेरा परचम है तेरा दस्त-ए-सवाल
बेजमीरी का और क्या हो मआल
अब कलम से इजारबंद ही डाल
तंग कर दे गरीब पे ये ज़मीन
ख़म ही रख आस्तान-ए-ज़र पे ज़बीं
ऐब का दौर है हुनर का नहीं
आज हुस्न-ए-कमाल को है जवाल
अब कलम से इजारबंद ही डाल
क्यों यहाँ सुब्ह-ए-नौ की बात बात चले
क्यों सितम की सियाह रात ढले
सब बराबर हैं आसमान के तले
सबको रज़ाअत पसंद कह के टाल
अब कलम से इजारबंद ही डाल
नाम से पेश्तर लगाके अमीर
हर मुसलमान को बना के फकीर
कस्र-ओ-दीवान हो कयाम कयाम पजीर
और खुत्बों में दे उमर की मिसाल
अब कलम से इजारबंद ही डाल
आमीयत की हम नवाई में
तेरा हम्सर नहीं खुदाई में
बादशाहों की रहनुमाई में
रोज़ इस्लाम का जुलूस निकाल
अब कलम से इजारबंद ही डाल
लाख होंठों पे दम हमारा हो
और दिल सुबह का सितारा हो
सामने मौत का नज़ारा हो
लिख यही ठीक है मरीज़ का हाल
अब कलम से इजारबंद ही डाल