सहिजन की तरह मूक नहीं बनें / प्रभात कुमार सिन्हा
सहिजन की लटकती फलियों के
पेड़ों की जड़ों में लग रहे हैं कीड़े
जब वे फूलते रहते हैं तो
उनकी रमणीयता को देख फलियाँ लगने तक
नजरें गड़ाये रहते हैं कीड़े
फलने पर वे आक्रमण कर देते हैं
समाज के फलदार दुर्लभ-श्रम की
अभिव्यक्ति हैं ये सहिजन
अभिनन्दनीय झुण्ड में फलते-झूमते हैं सहिजन
सीधे-सादे मूकजन की तरह हैं ये फलियाँ
इन्हें पता नहीं है कि कल अल्लसुबह ये
बाजार में बिकने चली जाएंगी
दुष्टों को नहीं देखा जाता
मित्र-समागम का अपूर्व दृश्य
मिथ्याचरण भरे आश्वासन से
फलियाँ द्रवित हो जाती हैं
और वे हाथ बढ़ाकर तोड़ ली जाती हैं
आ गये हैं दुष्ट
देवताओं की अभ्यर्थना के लिये बने शब्दों को
उन्होंने कण्ठस्थ कर रखा है
बोआरी से भी ज़्यादा बड़ा मुंह चियारकर
आडम्बर भरे मंत्र वे चिल्लाते हैं
वृक्षों के फलों पर
नदियों की छोटी मछलियों पर
आकाश में उड़ने वाले कलहंस की पंक्तियों पर
जीवनी-प्रदायिनी धरती पर
श्रमिकों के पसीने से भीगी उनकी देहयष्टि पर
दुष्टों की कड़ी नजर है
यहाँ तक कि कवियों की भाव-सम्पदा को
तोड़ देने के लिये आमदा हैं दुष्ट
लोक-जीवन को त्रस्त करने के लिये वे
अपने लकड़बग्घे जैसी जीभ लपलपा रहे हैं
कविगण बस इशारा कर
उनकी पहचान ही करा सकते हैं
जबकि मनीषियों की हत्या की नीति भी
बना रहे हैं दुष्ट
सजा-पर्यन्त भी कवि चाहते रहेंगे कि
अपार-शक्ति रखने वाली जन-जमात
सहिजन की फलियों की तरह मूक नहीं बनी रहे।