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सहेली - 1 / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
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उलझे जाए सुलझ, भूलती राह बताए;
मुँह न चिढ़ाए, बने रंगरलियाँ कर प्यारी।
कभी गुदगुदाए इतना न कि आँसू आए;
सदा सींचती रहे हृदयतल की फुलवारी।
रहे खीज में रीझ कलेजे में कोमलता;
सुख देखे हो सुखी, दुखों में दुखी दिखाए।
जो बिजली-सी कौंधा-कौंधा दहलाए दिल को;
तो बादल की तरह पिघलकर रस बरसाए।
मीठी बातें कहे, चुटकियाँ ले-ले छेड़े;
गाए सुंदर गीत कहानी चुनी सुनाए।
दे सीखें हित-भरी, बंद आँखों को खोले;
बड़े ढंग से बहुत ऊबता जी बहलाए।
मचल-मचलकर नई रंगतें रहे जमाती;
बेलमाती ही रहे मनों को बन अलबेली।
आँखों में हो प्यार, फूल मुँह से झड़ पाए;
हँस-हँस जी की कली खिलाती रहे सहेली।