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सहेली / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
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तो मानवता-वदन विकच किस भाँति मिलेगा,
सुमतिदायिनी मति जो बनती है मतवाली;
कैसे तो न अमंजु मंजु मानसता होगी,
जो मायामय बने मधु रतम मानसवाली।
तो कैसे सिर सकल सरस साधों न धु नेंगी,
सुखविधायिनी जो विधान सुविधा न बरेगी;
हित-तरु हो पल्लवित फल-प्रसू कैसे होगा,
परम हितरता अहित-बीज जो वपन करेगी।
तो दृग-जल से सिक्त क्यों न सहृदयता होगी,
परम सहृदया हृदय-हीन जो हो जाएगी;
किसका वदन विलोक सदयता दिन बीतेंगे,
दयामयी जो दया-हीनता दिखलाएगी।
कैसे तो न अपूत प्रीति-पावनता होगी,
जो जीवन सहचरी नीति बन जाय पहेली;
कैसे तो न प्रतीति-रहित वसुधातल होगा,
जो बतलाती रहे सुरा को सुधा सहेली।