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सहोदर भी नहीं होते सहोदरों के सगे / महेश सन्तोषी

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हमारा परिचय तो तुमसे जन्म से था
पर जन्म भर हम तुम्हें पहचान नहीं सके
कुछ वक्त ने सिखा दिया हमें कुछ तुमने
सहोदर भी नहीं होते, अब सहोदरों के सगे?

जाने कब बदल गये रास्ते सगे सुर्ख खून के
अब वो दिलों से होकर रूहों तक नहीं जाते।
सब पूछते तो थे हमसे
कौन थे ऐसे अपने
उन गुमनामों के सही नाम
हमारे ओंठों पर रह गये आते-आते।

जो कल पैदा हुए थे, हमारे अपने बन कर
उनके परायेपन की कहीं कोई हद ही नहीं रही
दस्तावेजों के नीचे दब गया निश्छल बचपन
बंट गये देखते-देखते घर, आँगन, देहरी
गवाह बनकर रह गयी, एक आहत झुलसी ज़िन्दगी
कभी धुआँ रहा, कभी आग
हम अलावों से रहे सुलगे-सुलगे
सहोदर भी नहीं होते, अब सहोदरों के सगे?

अच्छा होता हमारे रिश्तों के
कभी कोई नाम नहीं होते
जन्म से जुड़ी कुछ पीड़ाएँ
हम उम्र की शाम तक नहीं ढोते।

भूल जाते हम एक दूसरे को
भीड़ का हिस्सा कह कर,
पर खून का अभी पर्याय नहीं होता।
खून के रिश्ते नीलाम नहीं होते
बाद में बिकीं घर की बाकी विरासतें
पहले घर का जमीर बिक गया
किधर गया वो मां का रसोई घ्ज्ञर?
पिता का वो पूजा घर किधर गया?
कहाँ गये वे कमरे जहाँ हम वर्षों उठे, बैठे, पढ़े?
बिना ढहे ही हमारा घर, बिना प्यार के बिखर गया
हम वापिस नहीं ला पाएँगे
पिछला वक़्त इस अस्ताचल से
कोई सड़कें यहाँ से पीछे नहीं जातीं,
कोई रास्ते अब इधर से नहीं जाते आगे।
सहोदर भी नहीं होते, अब सहोदरों के सगे?