सहोदर से सम्वाद / नंद भारद्वाज
बड़े भाई
अक्सर मिलने पर
अफ़सोस करते हैं :
इससे तो अच्छा था
तू यह न होकर वह होता
ऐसे और इस तरह
सध जाते सारे काम
फलाँ की तरह
चार लोगों में नाम होता,
खुलवा देते छुटके को
कोई छोटा-मोटा-सा कारोबार
अच्छा खाता-कमाता
घर के धंधे में
कितनी बरकत होती है !
कौन पूछता है
तेरे इस नेक और हमदर्द होने को
उल्टे हमीं को लगी रहती है
तेरे बिसूरते भाग की चिन्ता ...
मैंने समझाना चाहा :
आप बेकार परेशान होते हैं
बड़े भाई -
मैं यहाँ होता या वहाँ
जहाँ भी होता
ऐसा ही होता,
कैसे हो पाता
उन कामयाब लोगों की तरह
चौकस और दुनियादार -
हर आदमी के होने की
अपनी तासीर होती है,
अपने हाथों रचा हुआ संसार ...
वे झुंझलाकर कहते हैं :
तुझे क्या मालूम
कैसे रचाया जाता है
इस हरामी दुनिया में
अपनी इच्छा का संसार
किसे कहते हैं ईमान
दुनियादारी
कैसे कैसे बनते हैं
दुनिया में काबिल लोग -
पूछ उन्हीं की होती है
जिनके पास होती है
इफ़रात पूंजी,
खरे पसीने की कमाई
तो महज एक मुहावरा है
बीते ज़माने का !
मैं चिन्तित और हैरान हूँ -
कितनी आसानी और
बिना किसी संकोच के
नेकी और ईमान से इतनी दूर
बेरोक
दुनियादारी के दलदल में
उतर जाते हैं मेरे सहोदर
जहाँ से आगे नहीं दीख पड़ती
कोई संवाद की संभावना,
मैं महज इतना भर पूछ पाता हूँ :
मेरी तो छोड़ें भाईजान
ज़रा अपनी पर गौर करें -
क्या बनाना चाहेंगे
अपने छुटके को आख़िर आप -
आख़िर अपने लाड़ले से
किस तरह की दुनिया में
मिलना चाहेंगे आप ?