साँकलों के पार माँ / शेखर सिंह मंगलम
मेरी माँ जब चिंता करती है
तब मैं उसके माथे की लकीरों पे
कई भाषाओं में कुशल-मंगल लिख देता हूँ।
दुनिया भर का अकेलापन
(द्वार) पर अट जाता है
जब मैं गाँव से शहर के लिए निकलता हूँ..
खूँटे में बंधी गाय
दरवाज़े पर लटका (नींबू-मिर्चा)
झुका हुआ हत्था नल का
चहारदीवारी घर की
और खिड़की से आती आंगन की खुशबू..
मुझे अनमने मन से
उस लहज़े में रुख़सती देते हैं
जैसे कि पूछते हों कि
फिर कब प्रतीक्षा की (साँकल खुलेगी;)
इन सब के मध्य अम्मा का
जामुन के पेड़ के पास लगे (अड़हुल) का फूल
और तुलसी का पत्ता
तोड़ कर मोटर कार में रखना
संकेत करता है कि
आसमान भर चिंता मैं दिए जा रहा।
दूर बरामदे की सीढ़ी पर खड़े
पिताजी का मौन मुझे बताता है कि
मेरे जाने के बाद चहचहाते कोने
बेतरतीब आत्मिक फैलाव के लिए मोहताज़ हो जाएंगे..
मेरी माँ को खड़ी हिंदी नहीं आती
वो मेरे हाव-भाव को
मंगल-अमंगल की लिपि में
भोजपुरिया अनुवाद करती है..
और मैं आश्वस्त हूँ कि
भले ही भोजपुरी व्यापक भाषा नहीं किंतु
दुनिया की किसी भी भाषा में
इतना श्रेष्ठ अनुवाद नहीं हुआ होगा
जितना कि मेरी माँ
मेरे हाव-भाव का अनुवाद भोजपुरी में करती है;
बच्चों के हाव-भाव की
माँ (श्रेष्ठतम्) अनुवादक होती है।