भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

साँझे आँसू-हँसी-दुआएँ / हम खड़े एकांत में / कुमार रवींद्र

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बन्धु, कभी
घर के होते थे
साँझे आँसू-हँसी-दुआएँ

घर की वे पहचानें खोईं विश्वहाट में
हुए सभी मानुष हैं बौने बड़ी लाट में

घर-घर में
बरबस घुस आईं
दूर देश की हठी हवाएँ

विश्वग्राम ने किए अज़नबी ड्योढ़ी-चौखट
अम्मा चुप हैं – हुई रात कल घर में खटपट

सबके कमरे
अलग-अलग हैं
सबकी अलग-अलग इच्छाएँ

हर बस्ती में रोज़ स्वार्थ के बढ़ते साये
किसको फुर्सत – घर-आँगन की महिमा गाये

पुरखे बीते
कोई न बाँचे
रामराज की अब गाथाएँ