बन्धु, कभी
घर के होते थे
साँझे आँसू-हँसी-दुआएँ
घर की वे पहचानें खोईं विश्वहाट में
हुए सभी मानुष हैं बौने बड़ी लाट में
घर-घर में
बरबस घुस आईं
दूर देश की हठी हवाएँ
विश्वग्राम ने किए अज़नबी ड्योढ़ी-चौखट
अम्मा चुप हैं – हुई रात कल घर में खटपट
सबके कमरे
अलग-अलग हैं
सबकी अलग-अलग इच्छाएँ
हर बस्ती में रोज़ स्वार्थ के बढ़ते साये
किसको फुर्सत – घर-आँगन की महिमा गाये
पुरखे बीते
कोई न बाँचे
रामराज की अब गाथाएँ