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साँझ-8 / जगदीश गुप्त

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नयनों ने जैसे कोई,
उत्सुक उत्सव देखा हो।
श्यामल पुतली के ऊपर,
बन गई एक रेखा हो।।१०६।।

अमृत की प्यासी आँखें,
मुख छिव तकती घूमेंगी।
मानस की कोमल लहरें,
सुकुमार चरण चूमेंगी।।१०७।।

सुरधनु सी उन बाँहों को,
भुज-पाश रहेंगे घेरे।
आआे भी तो पलभर को,
पावन-प्रदेश में मेरे।।१०८।।

तुम हो, तम हो, निजर्न हो,
सौन्दयर्-सुधा-रस बरसे।
कुसुमायुध वेध रहा हो,
अंतर केशर के शर से।।१०९।।

रजनी के अन्ितम क्षण में,
चुपके-चुपके ऊषा बन।
तुम कौन स्वप्न में आये,
भर गये दृगों में हिमकन।।११०।।

उस क्षण तुमको पाते ही,
जल होकर बहा समपर्ण।
कितने दिन इन प्राणों में,
अकुलाता रहा समपर्ण।।१११।।

सौ बार समय-सागर में,
लय होंगे साँझ-सवेरे।
तुम गिन न सकोगे फिर भी,
धड़कने हृदय की मेरे।।११२।।

सिर पर भौरो सी काली,
दुख की छाया गहरी थी।
सुमनावलियाँ रोती थीं,
आँखों में आेस भरी थी।।११३।।

झुलसी थीं उत्पीड़न से,
पंखुरियाँ आतप-मारी।
जलकण बन ढलक गई थीं,
सौरभ की सिसकन सारी।।११४।।

आँसू-शबनम के कन में,
ढालते अपिरिमत मद को।
तुम कौन किरन से आये,
रंग गये उदार जलद को।।११५।।

मच गया विकल-कोलाहल,
रजनी के अन्तःपुर में।
किरनों की कोमल लपटें,
जब उठीं तिमर के उर में।।११६।।

ज्यों ही ऊषा तिर उतरी,
धँुधली सी क्षितिज पटी पर।
नवनीत-श्वेत सुमनों की,
मधु-वृष्टि हुई अवनी पर।।११७।।

आँसू-श्रमकण से बोझिल,
पलकों के पंख पसारे।
उड़ गये नयन-नीड़ो से,
सपनों के विहग बिचारे।।११८।।

निशि ने श्लथ-केश समेटे,
नत नयन-कुमुद सकुचाये।
ऊषा ने अरूणांचल से,
तारों के दीप बुझाये।।११९।।

मेरे प्रसुप्त जीवन में,
आई जागृति की बेला।
अधमँुदे दृगों से देखा,
मैंने सुकुमार उजेला।।१२०।।