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साँझ का संदेश / नरेन्द्र शर्मा

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नतमस्तक हो सूर्य रोकता राह, और ऊँचा चढ़ तू!
तिमिरांचल में छिपा थका पथ, किन्तु और आगे बढ़ तू!
एकाकी है तू, पर कैसा एकाकी मानवप्राणी?
तेरे उर-कम्पन में स्पंदित सदियाँ जानी-अनजानी!

एक बूँद शोणित की तेरे—चिनगारी उस ज्वाला की,
जिस ज्वाला से दीपित मनु की जाति, विपुल मणिमाला सी!
देश-राष्ट्र, भाषाएँ जिनकी अनगिनती तरु-पाँतों सी,
हुए एक तेरे तन-मन में—और न सागर सातों भी
विलग उन्हें कर सकते तुझसे—फिर तू कैसा एकाकी?
इससे वंचित कर न सकेगा तुझे भाग्य का लेखा भी!

निरुद्देश्य बहती बयार, पर तुझको उसकी होड़ नहीं!
बँधे पाँव ये खड़े पेड़, पर तेरा उनका जोड़ नहीं!

द्युति दिन की, विद्युत खग-पाँखों की खोई, आगे बढ़ तू!
उतरे चाँद-सितारे जल में, पर ऊँचा-ऊँचा चढ़ तू!