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साँझ के बाद रात / नरेन्द्र शर्मा
Kavita Kosh से
बुझ सा गया सूर्य,
साँझ की उदासी।
शीत वायु
कहती—अब दिवस की शेष आयु।
दिवस की शेष आयु,
साँझ की उदासी।
दिन भर ही व्योम घिरा-घिरा रहा,
अभी भी घिरा है जो बारी कर कई बार,
घिर रहा अंधकार,
घिर रहा अंधकार,
साँझ की उदासी।
स्वजनों से दूर,
दूर निज प्रियजन से,
बंद यहाँ—
मंद मंद जलता मैं चिन्तन से।
आते जो जो विचार
हो जाते क्षार-क्षार--
जल जल कर क्षण भर को पावक के कन से।
पंख लगा अनायास
आते फिर स्वप्न पास,
घर में घिर अपनों से बैठता प्रवासी।
पल-छिन के सपने ये।
अपने भी हुए दूर,
सपने थे जिनके ये।
स्वप्न-चीर तार तार,
जीवन-क्षण हुए भार,
झाँक झाँक खिड़की से
देख घिरा घिरा व्योम,
बंद यहाँ
जलता मैं मंद मंद--आशा में—
होगी ही (कब होगी?) दिवस की निकासी!