दिन-रात, वर्ष-माह
युग व्यतीत हुए
उपले, कंडे, गाय-गोरू
खेत बैल, बीज
आज भी वह कर रही है
पूर्ववत् सब कुछ
प्रातः से सायं
वह खटती है
माथे पर छलक आये श्वेद कणों को
आँचल से थपथपा कर
पोंछती है
करती है दुलार
अपनी थकान से
परिश्रम से
घास व जंगली पौधों से
ओस की बूँदों से
मिट्टी की सोंधी महक से
भूख से अभावों से
बाद बारिश के स्वतः उग आयी
असंख्य पुष्पित बिरवों से
वृक्षों को ढँकती लताओं से
वह रहना चाहती है तृप्त-संतृप्त
बाद बारिश के स्वतः उग आयी
बिरवों के पुष्पों-सी
वृक्षों को अंक में भरती लताओं सी
साँझ उतरती है धीरे......... धीरे........धीरे......
वृक्षों से चलती हुई
खपरैल से उतर कर
खेतों में पसर जाती है
वह विस्फारित नेत्रों से देखती है
इर्द-गिर्द
गहराती साँझ को
वह जानती है
इस ढलती बेला में
उसके हिस्से हैं
कुछ अपशब्द, कुछ चोटें
बहुत सारे टुकड़े मानवता के,
संवेदनाओं के,
नारी सुलभ सम्मान के
वह काँप जाती है
अपनी देह पर होने वाले
अपनी देह पर होने वाले
आदिम भूख की कल्पना मात्र से
वह अपने आँचल से पोछती है
माथे पर छलक आयी
पसाने की बूँदों को
उसे सब कुछ सहज स्वीकार्य है
वह अस्वीकृत करती है
अपनी अल्हड़ युवा उम्र को,
साँवली देह को,
सुरमई नेत्रों में भरी चाँदनी को
हृदय के तलघर में छुपे
नेह-बन्ध को
वह विलीन होती जा रही है
साँझ के साए में।