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साँझ ढल चुकी / कुमार रवींद्र

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साँझ ढल चुकी
आओ...
चलो टहलकर आते हें, सजनी

बोर हुए बैठे-बैठे
कमरे के अंदर
चलो, देखकर आते हैं
क्या करता सागर
उसके
नभ-धरती
दोनों से गहरे नाते हैं, सजनी

चाँद-लहर के खेले
होते होंगे उस पर
हँसते होंगे टापू
उनके खेल देखकर

इसी समय तो
जल-देवा
तट पर आ जाते हैं, सजनी

सीपी-शंख और घोंघे
बीनेंगे मिलकर
साथ लिखेंगे रेती पर हम
ढाई आखर

दोहरायेंगे गान
जिन्हें
जलपाखी गाते हैं, सजनी