साँझ दीप / बाबा बैद्यनाथ झा
रहता सामंजस्य बना जब, नैसर्गिक आभास वहीं है।
साँझ दीप जलते जिस घर में, शुभ लक्ष्मी का वास वहीं है॥
नैतिक मूल्यों का अवमूल्यन, मानव का होता जाता है।
अंध दौड़ में भौतिकता की, अपनापन खोता जाता है।
नहीं अभी सौहार्द बचा है, आपस में भी मेल नहीं है।
जिजीविषा का अश्व दौड़ता, है उद्दण्ड नकेल नहीं है।
धन लोलुपता बढ़ जाने से, सद्भावों का ह्रास वहीं है।
साँझ दीप जलते जिस घर में, शुभ लक्ष्मी का वास वहीं है॥
आपद आने पर अपनों का, एक नहीं अब हाथ मिलेगा।
बुरे कर्म में सबको प्रायः, दुष्ट जनों का साथ मिलेगा।
पतन मार्ग में आगे चलकर, अंत समय में सब कुछ खोता।
शक्तिहीन होकर वह उसदिन, पछताकर है प्रति पल रोता।
विविध व्याधियाँ आ जाने पर, फिर पूरा संत्रास वहीं है।
साँझ दीप जलते जिस घर में, शुभ लक्ष्मी का वास वहीं है॥
सहोदरों से प्रेम बनाकर, एक साथ हम जीना सीखें।
मिले सुधा या विष जीवन में, मिलजुल कर ही पीना सीखें।
आपस में जब प्रेम बना हो, सुखमय जीवन हो जाता है।
शेष पीढ़ियाँ खुश रह पाएँ, बीज स्नेह के बो जाता है।
परम शान्ति यश धन वैभव का, चिर शाश्वत आवास वहीं है॥
साँझ दीप जलते जिस घर में, शुभ लक्ष्मी का वास वहीं है॥