साँझ परी / ब्रजमोहन पाण्डेय 'नलिन'
धीरे-धीरे आसमान से साँझ परी उतरल हें।
हर पोखर क मुँदल कमल के सोभा भी उपहल हे॥
सागर के जल पर फइलल हे कोमल सुघर ललाई॥
बिखरल हे जइसे रमनी के अजगुत सुन्दरताई॥
चहक रहल चिरईं झुरमुट में गूँज रहल बँसवरिया।
संग हव के झूम रहल हे मदमातल फुलवरिया।
पनघट से घट में अमरित भर लौट रहल हे जुवती।
सान्ति-सुधा से भरल इहाँ पर हे जिनगी के धरती॥
हर बथान से लौट रहल हे रँभा रँभा के गइया।
फूल फूल के गन्ध मधुर ले बहल सगर पुरबइया॥
समता के सीतल अँचरा में भर आनन्द सुहावन।
साँझ परी अब बाँटल रहल हे समता के रस भावन॥
लता विटप में खेत रेत में औ झुरमुट झाड़ी में।
कहीं न हलचल कोलाहल हे गाँव नगर बाड़ी में॥
फेंड़न के फुनगी पहाड़ औ धरती नील गगन में।
जल में थल में लहर लहर में हरिचन्दन के वन में॥
रोर-सोर घनघोर रुकल हे सुमन सुरभि बरसल हे।
साँझ परी चुप्पी उड़ेल के अगजग में पसरल हे॥
हारल थक्कल जीव-जन्तु के मदिरा मधुर पिला के।
सुला रहल अप्पन गोदी में मनहर तान मिला के॥
सले सले सरकल धरती पर रात सुहागिन आयल।
जूड़ा में ससि-फूल खोंस के सगरो हे छितरायल॥
गगन-वसन में गोटा जइसन तारा चमचम चमके।
बिजली के रेखा मँगिया में सेनुर जइसन दमके॥