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साँझ हुई चल पँख समेटें / ताराप्रकाश जोशी
Kavita Kosh से
साँझ हुई चल पंख समेटें
उमर-उड़ान कहाँ थम जाए, चल, अछोर छाया में लेटें !
रूप निहारे, रंग निहारे
आकृति - आकृति अंग निहारे,
जो छवि भाये सो छवि ओझल
दुनिया के सब संग उधारे,
पल दो पल की आँख - मिचौनी
चल अदीठ आभा से भेंटें !
तरुवर से क्या ? कोटर से क्या ?
नदिया से क्या ? पोखर से क्या ?
मैं अपनी हंसिनिया के बिन
मुझको मानसरोवर से क्या ?
यह नभ छोटा जैसे जीवन
चल अशेष के पृष्ठ पलेटें !
कूजन चुप है, कलरव चुप है,
जंगल चुप है, अर्णव चुप है,
केवल सूनापन मुखरित है
यात्राएँ चुप, अनुभव चुप हैं,
सात सुरों का क्या पतियारा
चल, अनादि के तार उमेठें !