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साँझ / अनिता मंडा
Kavita Kosh से
पहाड़ पर जमी बर्फ़ से
भारी है हवा का मन
एक अनसुलगे अलाव की गर्माहट
ढूँढ रही हैं हथेलियाँ
कुछ शब्द आवाज़ का पैरहन ओढ़
तुम तक कभी नहीं आये
वो सिक्कों में तब्दील हो कर
खनकते हैं मन के किसी कोने में
प्रेमियों के अनकहे शब्द हैं
हवा से उड़ते सूखे पत्ते
उनकी खनक ढोती है गहन अर्थ का भार
स्मृति की तह से निकली एक साँझ
महकती है आती सर्दी की खुनक सी
सांवला रंग ओढ़ती है नीले को छोड़
इस धुंधलके में मुझसे एक
ग़ज़ल खो गई है
उदास आँखों के दो मिसरे
मेरा हासिल है।