साँझ / महेन्द्र भटनागर
उस ऊँचे टीले पर
कुछ सहमी-सी
काली,
नंगी,
अनगढ़ चट्टान पड़ी है !
सहमी-सी —
शायद,
उस पर अब कोई आकर लेटेगा !
कोई ?
हाँ,
हो सकता है —
चांद-सितारों का प्रेमी हो,
कवि हो,
प्रिय से बिछुड़ा हो,
या कि जगत से रूठा हो !
टीले के चारों ओर
बड़ी दूर-दूर तक
भूरी मिट्टी पर
हरा-हरा क़ालीन बिछा है ;
क़ालीन नहीं हो तो
कम्बल हो सकता है
जिसके अन्दर
कोई भी छिप सकता है !
पास सरोवर के
नरम हृदय की लहरों पर
सूरज की ठंडी किरणें
आलिंगन ढीला करती-सी
धीमे-धीमे
कल आने की बात
सुनाती हैं
‘देखो,
जैसे वह विहग-यूथ उड़ा आता है
हम भी आएंगे !
अब तुम सो जाओ’ !
फिर झोंका आया मंद हवा का
जैसे कोई रमणी
जॉरजेट की साड़ी पहने
निकली हो अभी निकट से !
और देखते ही
इस मन-मोहक दृश्य-चित्र पर
क्या कहें !
किस फूहड़ चित्राकार ने
काले रंग का ब्रुश
आहिस्ता-आहिस्ता
कितनी बेरहमी से चला दिया !
फिर क्या होता है
चाहे कितने ही छींटे
व्योम पर सफ़ेदी के फेंकें !