साँझ / रामकृष्ण
पैजनी बान्ह साँझ उतरल हे
का जनी का से का इ कर देतो॥
एक तो असगरे ही घर सूना,
दूसरे मन के हे दरद दूना,
ओढ़ चुनरी सितार-सलमा के
भर रहल हे इंजोर हर कोना।
तोर किरिए पिरीत हिरदा के
एक ब एक सब उकट के धर देतो॥
तोर अनमन मुठान के अइसन,
चान पूरुब में मुस्कुराएल हे।
झील गगना के आ कि अँगना में
फूल तरेंगन के खिल - खिलाएल हे।
ई भरम फिन से एगो सपना के
मीठ सरगम सिरज के धर देतो॥
आँख मुनलो में रूप झलकऽ हे
तार हिरदा के झनझना जाहे।
हम जे असरा नुकाके रखले ही
लोर अइसन उ छलछला जा हे।
बाँच के हर खुलल-मुनल पन्ना
बात सब के बता के धर देतो॥
गन्ह जूही के साँस में, बेला
का पता कउन रस के अठखेला,
हो रहल आर-पार नदिआ के
धार पर जोत के लगल मेला॥
पोर अँगुरी के छू करेजा में
टीस काँटा अरज के धर देतो॥