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साँसें / अनीता सैनी
Kavita Kosh से
कोहरे की चादर में
लिपटी साँसें
उठने का हक नहीं है
इन्हें !
जकड़न सहती
ज़िंदगी से जूझती, ज़िंदा हैं
टूटने से डरतीं
वही कहती हैं जो सदियाँ
कहती आईं
वे उठने को उठना और
बैठने को
बैठना ही कहतीं आईं हैं
पूर्वाग्रह कहता है-
तुम
घुटने मोड़कर
बैठे रहो!
उठकर चलने के विचार मात्र से
छिल जाती है
विचारों के तलवों की
कोमल त्वचा।