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साँस रोक कर याद करो भोपाल - 1 / विनोद दास
Kavita Kosh से
देखो देखो भाग रहे हैं लोग
खाँसते खखारते
आँखें मलते साफ़ करते
अपनी छाती दबाये हुये
कुहरे में भाग रहे हैं लोग
न जाने किस ओर
एक-दूसरे से बेख़बर
लोग भाग रहे हैं
और पकड़े नहीं है
किसी का हाथ
क्यों भाग रहे हैं लोग
क्या जल्दी है
आश्चर्य है
उन्होंने ताले भी नहीं लगाये
अपने घरों में
वे सिर्फ भाग रहे है
बेतहाशा छोड़कर होशो-हवास
उनके पास कोई नहीं है सामान
सिर्फ़ हवा है
और पैरों तले ज़मीन
कुछ ही क्षणों में
हवा ने दे दी दग़ा
और वे ख़ाली शीशियों की तरह
लुढ़क गये ज़मीन पर
फड़फड़ाते हुए
उस सुबह
फिर हमारी आँखें ही नहीं
पत्थर, पत्तियाँ और ज़मीन भी गीली थीं