भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सांझ के बाद / तरुण

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मत करो दफ्तरों की बातें सन्ध्या होने के बाद,
सुलगाओ बस, धीमी-धीमी कोई दर्दीली याद!

पूरे चंदा के आड़े छितरीं हरी पत्तियाँ देख-
बिखरी लट वाले मुख की सुधि का लो सपनीला स्वाद!

सुनसान विजन-तट चलता हो जब लहरों का संगीत-
चुपचाप सुनो चूड़ी का स्वर, खन्-खन्-सा नूपुर-नाद!

कुछ बैठ अकेले छत पर, या नौका पर सागर-तीर,
चुपचाप बजाओ बाँसुरिया-मन में घुल जाय विषाद!

आँखों में ले किशमिशी सपन, मन पर तारे-सा डंक-
गीली लकड़ी के धुएँ-सा उपजाओ कुछ अवसाद!

कुचली कलियों-सा करुण-करुण अधजला हृदय सुकुमार-
कितना निंदियारा हो उठता-सुनते झिल्ली का नाद!

मत करो दफ्तरों की बातें सन्ध्या होने के बाद,
सुलगाओ बस, धीमी-धीमी कोई दर्दीली याद!

1959