सांझ के वातायन से / गीता शर्मा बित्थारिया
सांझ के झुरमुटों में
दबे पांव
सूरज से मिलने
आती है यामिनी
सिन्दूरी वितान में
मद्धम प्रकाश
विहगों का मधुर
मंगलगान
सुनती है विभावरी
मिलन को
आतुर सूरज ने
अश्वरथ की
थामी लगाम
सितारों की झीनी
चांदनी चुनर के
अवगुन्ठन में
रात रानी को
ले जाता हैं
चांद के पार
निशि जाग कर
देती है थपकियाँ
गाती है लोरियाँ
और पालती है
नन्हे अंशुमान को
अपने गर्भ में
सौंपती है शर्वरी
बालरवि को प्राची में
अलसायी सी भोर को
लौटती है
नव प्रसूता
तिमस्रा
और ढूढती है
कहीं ओट में
तनिक विश्राम
साँझ ढले तक
फिर झांकती है
वातायन से
क्षितिज के
उस पार
तीक्ष्ण धूप से
मलिन पथिक
हिमशिख पे
ठहरा है दिनकर
मुख पर छाये हैं
स्वेद बिंदु
कादम्बरी स्वयं
मन्द मलय का
पंखा झलती है
सप्त रश्मियां
दमक उठी हैं
प्रतिची की
प्राचीर पर
निहारती है
स्वर्णिम सूरज को
विहारता है विहान पर
चाँद लिये हाथ
करते मनुहार
मधुमिलन की आस
से आल्हादित
माधुर्य रास
के साथ
प्रतीक्षा से बोझिल
सांझ की बेला
गोधुलि की आड़ में
सूरज को हौले से
तिमिर आलिंगन में
गह्य लेती है
स्वीकारती
तिमिर-रश्मि
का गोपन प्रस्ताव
गलबहियाँ डाले
नदी किनारे
बात करते हैं
दिशि रैन
कब उतरेगा
पूनम का चाँद
धीरे धीमे
कदमों से
शांत झील में
लिये मधुरस से
भरा पात्र
सुवासित रजनीगंधा
झरे हुये परिजात
चुपके से
भोर को
कह देते हैं
शरद पूर्णिमा में
भीगी यामा की
हर एक बात
सृष्टि के सृजक
का चैतन्य रास
नित नूतन
शाश्वत सत्य हैं
चिर परिचित
अनवरत क्रम में
अनंत काल से
अनघ प्रेम
नभोनील पर
प्रतिबिंबित है