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सांझ / सुदर्शन प्रियदर्शिनी
Kavita Kosh से
सांझ ढले भास्कर
की तिक्त उर्जा
यहाँ वहां
कक्ष के
अदीप्त कोनो में
फैलती जा रही है ....
अपरान्ह की
यह बची -खुची
अग्नि
मेरे निसस्त्व
प्राण मैं
किलक नही
भर सकती ...
केवल लुंज -पुंज
हुए आत्म को
उदीप्त करने का
असफल प्रयास
भर कर सकती है
कहाँ थे तुम सूरज
जब दिन उगा था ..?