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सांड़ / शिरीष कुमार मौर्य

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साँड़ की आँखों को लाल होना चाहिए पर गहरी गेरूआ लगती हैं मुझे
विशाल शरीर उसका
अब भी बढ़ता हुआ ख़ुराक के हिसाब से
उसके सींग जब उसे लगता है कि हथियार के तौर पर उतने पैने नहीं रहे
उन्‍हें वह मिट्टी-पत्‍थर पर रगड़ता है पैना करता है

राह पर निकले
तो लोग भक्ति-भाव से देखते हैं
क़स्‍बे के व्‍यापारियों ने पूरे कर्मकाण्ड के साथ छोड़ा था उसे शिव के नाम पर
जब वह उद्दण्ड बछेड़ा था
तब से लोगों ने रोटियाँ खिलाईं उसे
उसकी भूख बढ़ती गई
स्‍वभाव बिगड़ता गया
अब वो बड़ी मुसीबत है पर लोग उसे सह लेते हैं

वह स्‍कूल जाते बच्‍चों को दौड़ा लेता है
राह चलते लोगों की ओर सींग फटकारता है कभी मार भी देता है
अस्‍पताल में घायल कहता है डॉक्‍टर से
नन्दी नाराज़ था आज पता नहीं कौन-सी भूल हुई

उसे क़स्‍बे से हटाने की कुछ छुटपुट तार्किक माँगों के उठते ही
खड़े हो जाते हिंदुत्‍व के अलम्‍बरदार

इस क़स्‍बे की ही बात नहीं
देश भर में विचरते हैं साँड़ अकसर उन्‍हें चराते संगठन ख़ुद बन जाते हैं साँड़

सबको दिख रहा है साफ़
अश्‍लीलता की हद से भी पार बढ़ते जा रहे हैं इन साँड़ों के अण्डकोश
उनमें वीर्य बढ़ता जा रहा है
धरती पर चूती रहती है घृणित तरल की धार
वे सपना देखते हैं देश पर एक दिन साँड़ों का राज होगा
लेकिन भूल जाते हैं कि जैविक रूप से भी मनुष्‍यों से बहुत कम होती है साँड़ों की उम्र

ख़तरा बस इतना है
कि आजकल एक साँड़ दूसरे साँड़ को दे रहा है साँड़ होने का विचार

उनका मनुष्‍यों से अधिक बलशाली होना उतनी चिन्ता की बात नहीं
जितनी कि एक मोटे विचार की विरासत छोड़ जाना

सबसे चिन्ता की बात है
इन साँड़ों का पैने सींगो, मोटी चमड़ी और विशाल शरीर के साथ-साथ
पहले से कुछ अधिक विकसित बुद्धि के साथ
मनुष्‍यों के इलाक़े में आना