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सांध्य-गीत / सांध्य के ये गीत लो / यतींद्रनाथ राही

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सान्ध्य का यह गीत
लो तुमको दिया है!

साँझ ढलती जा रही
अँधियार गहरा
सामने है वक्त
अन्धा और बहरा
ज्योति को
ये गगन के नक्षत्र सारे
जुगुनुओं के हौसले भी
क्या कभी हारे?
हर नया दिनमान लाने तक-
जलेंगे
ज़िन्दगी को
रोशनी से ही भरेंगे
और क्या है
जो लिखूँगा
अब कभी मैं?
 सान्ध्य का यह गीत
लो तुमको दिया है।
दे रहा है शक्ति कोई
चल रहा हूँ
बूँद बन-बन गीत में मैं ढल रहा हूँ
एक मेला है
मिले, जाते रहे हैं
गीत थे कुछ
जो कभी गाते रहे हैं
बो दिये हैं बीज जो कुछ प्यार के भी
काम आएँगे कभी उस पार के भी
चाहिये भी और क्या
उसको कभी जो
पारिजातक खुशबुओं-
में ही जिया है।

अधर पर अधरा गयी है
दो पलक जो
नयन में गहरा गयी कोई झलक जो
उम्र भर ढोकर किसी की याद को ही
प्राण में गुंजित मधुर संवाद को ही
क्या करेंगे
भूल जाना ही सुखद है
इस जगत में ज़िन्दगी
बेहद दुखद है
तृप्ति कैसे तूर्यनादों में मिलेगी
  बाँसुरी का स्वर कभी जिसने पिया है।