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सांध्य गीत / रामकृपाल गुप्ता

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झुरमुट के उस पार
सुनहरी साँझ सिकुरती चली जा रही।
प्रणय पंथ पर किसे बुलाकर
व्रीणा का उपहार सजाकर नयनों में रे
जग का वैभव-भाव विसरती चली जा रही
झुरमुट के उस पार
नयनों के फेनिभ आँचल पर
रक्तिम डोरे उभर-उभरकर
कह जाते मानस की गाथा
उर्मिजाल से बिखर-बिखरकर
तम के पर्दे में छुपती-सी
हँसती-हँसती चली जा रही
नभ छाया धरती सोयी हैं
कर में दीप लिये कोई हैं
अपने पीछे छोड़ अँधेरा
अभी प्रतीची में खोई हैं
जग सोयेगा दिये जलाकर
नभ में झिलमिल तारे आये
पथ सूने हो चले भटकते
विहग लौटे नीड़ों में आये
रात बिखरती चली आ रही
झुरमुट के उस पार।