संसार, पागलपन और आत्मविलाप को छोड़
राजधानी को पार करती शामें चली जा रही हैं
और बरामदे में खड़ी हाथ हिला रही हूँ मैं —
जो विषाद सुख है सिर्फ़
उसके लिए क्षोभ होता है
अकेली होती जा रही हूँ मैं
थकती जा रही हूँ,
इंसानों के पास जाते-जाते
क्रमशः दूर होती जा रही हूँ,
भूख के बारे में सोचते ही
भातफूल खिल उठते हैं माथे पर
मुझे अब महसूस होने लगी है
अपनी सारी उदासियाँ
ये चार दीवारें, चतुर्भुज कमरा
बेतरतीब गृहिणीपन को छोड़
नाव से नदी पार होती है पिशाचिनी
आयुरेखा को थामे झुक जाता है सूर्यास्त
शाम के विषाद के बाद
स्त्रीजन्म पानी में बह जाता है।
मूल बंगला से अनुवाद : उत्पल बैनर्जी