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सांप-सीढी / मदन गोपाल लढ़ा
Kavita Kosh से
गळी सूं मुड़तां पाण
चौरावो है
जिण सूं सरु हुय जावै
फेर चार गळ्यां।
गळी सूं जुड़ जावै
अेक बीजी गळी
अर इण भांत
बण जावै गळ्यां-
सांप-सीढी।
जीयाजूण दांई लखावै-
ओ गळ्यां रो जाळ
जिणरो खेल चालै
आखी उमर!