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सांप / निदा नवाज़

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(१)
वे मेरी डॉयरी के
पन्नों पर लिख रहे हैं
आतंक की इबारतें
ख़ून की भाषा में
और मुझे दिख रहे हैं
जीवन के हर पन्ने पर
शब्दों के सांप

(२)
उहोंने मेरी देह पर
सांप छोड़ें हैं
और मैं
अपनी आत्मा की धरा पर
फूल खिलने की प्रतीक्षा में
विष-पेड़ बन चूका हूँ

(३)
जीवन की सांप-सीढ़ी के
खेल में
साँपों पर ही पड़ते रहे
हर बार मेरे क़दम
और सीढ़ी का
हर सोपान
उगलता रहा
हरा भरा विष

(४)
वे हर बार
सांप की तरह
बैठते हैं
मेरी बौद्धिक धमनियों पर
फुंकारते
कुंडली मारते
और हर बार मैं
अपने विचारों के
विषहर से
देता हूँ उन्हें मात