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सांबली स्वर्णिम घटाओं से घिरी है शाम / उर्मिल सत्यभूषण
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सांबली स्वर्णिम घटाओं से घिरी है शाम
जगमगाते हुस्न के छलका रही है जाम
भीगती आई हवा, नटखट, रही है छेड़
बांसुरी बजने लगी उर में, जगे घन शाम
टहनियां पेड़ों की धरती पर झुकाये माथ
धीरे-धीरे लिख रहीं ख़त मौसमों के नाम
गोरे काले घन कबूतर उड़ चले किस ओर
जाने किस महबूब ने भेजा किसे पैग़ाम
ये बला के खूबसूरत रंगे कुदरत देख
दो घड़ी जो देख ले तो ले कलेजा थाम
फुर्सतें मिलती अगर खुद को संवार लेते
जिंदगी पूरी हुई पूरे हुये कब काम
भीड़ चौराई नगर की आज हम से दूर
भूल कर उर्मिल उसे तू कर ज़रा विश्राम।