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सांसों की रेज़गारी / पंछी जालौनवी
Kavita Kosh से
उसने चंद साँसों की
रेज़गारी फेकी
और हम
निकल पड़े
ज़िन्दगी खर्च करने
बस अक्सर यूँ हुआ
जो चीज़ भी पसंद आई
वो मौजूदा रक़म से
ज़्यादा की निकली
छोटे छोटे से तबस्सुम
नन्हीं नन्हीं सी
ख्वाहिशों के लम्स से लेकर
मामूली से मामूली
ख़ुशगवार लम्हा भी
मेरी दस्तरस से बाहर निकला
अब जब मैं लौट आया हूँ
ख़ुदमें वापस
अब आवाज़ लगते हैं
फेरीवाले दरवाज़े पर
सब बेच रहे हैं
ज़िन्दगी अपनी अपनी
उम्रें कोई नहीं बेचता ॥