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सांसों के समंदर में /पृथ्वी पाल रैणा
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सांसों के समंदर में
मेरे हिस्से की जो चंद सांसें हैं
उन्हें जी लूं फिर सोचूंगा
कितना लम्बा रास्ता
अभी और तय करना है
कहने को तो
यह जीवन मेरा है
लेकिन इसमें मैं कहां हूं
मेरे करने से यहां
कुछ नहीं होता
जो भीतर है भीतर ही रहता है
जो बाहर है कभी भीतर नहीं जाता
संसार कितना भी लुभावना हो
संसार ही बना रहता है
'मैं हो नहीं
पा सकता
’मैं होने का
केवल आभास होता है
इसी आभास को हम ’मैं’ मान कर
जीवन की उलझी हुई राहों में
भटकते भटकते उम्र बिता देते हैं
होने न होने
पाने और खोने में
सांसों का हिसाब खो जाता है
इसीलिए सोचता हूँ
अपने हिस्से की जो
चंद सांसें हैं
उन्हें खुल के जी लूँ
फिर फ़ुर्सत मिली तो
हिसाब लगा लूँगा
क्या पाया और क्या खोया ।