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सांस घुटती है कुछ तो फिज़ाओं में है / उर्मिल सत्यभूषण

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सांस घुटती है कुछ तो फिज़ाओं में है
ज़हर सा घुल रहा अब हवाओं में है

सांप पलने लगे आस्तीनों में अब
दंश उनका ये, कसती भुजाओं में है

कौम मज़हब की, भाषा की ये भित्तियां
दीखतीं अब खड़ी सब सभाओं में है

जड़ से ही अब उखाड़ों ये विष की वल्लरी
ज़हर भरती जो सारी लताओं में है

हाँ, बहा देगी उर्मिल वतन के लिये
खून बहता जो उसकी शिराओं में है।