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सांस भर रहे हैं पत्थर / विष्णुचन्द्र शर्मा

पर्वत पर लेटे या बैठे
पत्थर मुझे देखकर
पूछते हैं: ‘कविता लिख ली है?’
मैंने अपने मित्रों से कहा:
‘बगीचे में फले हैं सेब
आओ तोड़े।’
फिर सोचते हुए पत्थरों ने
सांस भर कर याद दिलाया:
‘सब्जी हरी-भरी है,
फूल सुनाते हैं कविता ताज़ी।’
पर्वत पर आड़े-बेड़े पत्थर
दुहराते रहे:
‘धूप की कविताएँ
नई-नई।’