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साए फैल गए खेतों पर / अब्दुल हमीद

साए फैल गए खेतों पर कैसा मौसम होने लगा
दिल में जो ठहराव था इक दम दरहम बरहम होने लगा

परदेसी का वापस आना झूटी ख़बर ही निकली ना
बूढ़ी माँ की आँख का तारा फिर से मद्धम होने लगा

बचपन याद के रंग-महल में कैसे कैसे फूल खिले
ढोल बजे और आँसू टपके कहीं मोहर्रम होने लगा

ढोर डंगर और पंख पखेरू हज़रत-ए-इंसाँ काठ कबाड़
इक सैलाब में बहते बहते सब का संगम होने लगा

सब से यक़ीन उठाया हम ने दोस्त पड़ोसी दिन तारीख़
ईद-मिलन को घर से निकले शोर-ए-मातम होने लगा.