साए में धूप / नीरजा हेमेन्द्र
मैं थी नन्ही बच्ची
माँ! तुम कहती थी परी
शीतल हवाओं पर आते दिन
सपने दिखाती रातें,
व्यतीत होती रहीं
माँ! तुम मुझे दुलारती, स्नेह से चूमती
धूप की अनुभूति न थी मुझे
तुम्हारे मातृत्व की छाँव से अभिभूत थी मैं
शनैः... शनैः... ... शनैः... ... 
मैं बड़ी होती गई 
माँ! तुम मुझसे घर के बहुत सारे कार्यों को कराती
मुझे अच्छे लगते थे वे सारे कार्य
शेश कुछ नही... ... 
मैं देखती अपने गाँव के विद्यालय को
जहाँ तुमने मुझे कभी नही भेजा 
बारिश में भीगते पर्वतों-सा सुन्दर दिखता था... विद्यालय
ऋतुओं के साथ परिवर्तित होता उसका रंग-रूप
कोहरे की धंुध में किसी दुल्हन-सा छिपता-दिखता 
पहाड़ी नदी-सा कल-कल की संगीत ध्वनियाँ सुनाता 
सूर्य की प्रथम किरणों के पड़ते ही 
स्वर्ण रश्मियाँ-सा बिखेरता... विद्यालय
मैं उसे देखती रही... बस, उसे देखती रही
बड़ी होती रही
किन्तु जा न सकी... विद्यालय!
मैं पुनः बच्ची बन कर 
विद्यालय जाना चाहती हूँ
माँ! तुम मुझे भेज सकती हो विद्यालय।
	
	