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साक़ी की इक निगाह के अफ़्साने बन गए / साग़र सिद्दीकी

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साक़ी की इक निगाह के अफ़्साने बन गए
कुछ फूल टूट कर मिरे पैमाने बन गए

काटी जहाँ तसव्वुर-ए-जानाँ में एक शब
कहते हैं लोग उस जगह बुत-ख़ाने बन गए

जिन पर न साए ज़ुल्फ़-ए-ग़ज़ालाँ के पड़ सके
एहसास की निगाह में वीराने बन गए

जो पी सके न सुर्ख़ लबों की तजल्लियाँ
दुनिया के तजरबात से अनजाने बन गए

'साग़र' वही मक़ाम है इक मंज़िल-ए-फ़राज़
अपने भी जिस मक़ाम पे बेगाने बन गए