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साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / तृतीय सर्ग / पृष्ठ ४

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कहाँ है हा! तुम्हारा धैर्य वह सब,
कि कौशिक-संग भेजा था मुझे जब।
लड़कपन भूल लक्ष्मण का सदय हो,
हमारा वंश नूतन कीर्तिमय हो।
क्षमा तुम भी करो सौमित्र को माँ!
न रक्खो चित्त में उस चित्र को माँ!
विरत तुम भी न हो अब और भाई!
अरे, फिर तात ने संज्ञा गँवाई!
रहूँगा मैं यहाँ अब और जब तक--
बढ़ेगा मोह इनका और तब तक।
करूँ प्रस्थान इससे शीघ्र ही अब,
इन्हें दें सान्त्वना मिलकर स्वजन सब।"
प्रणति-मिस निज मुकुट-सर्वस्व देकर,
चले प्रभु तात की पद-धूलि लेकर।
चले उनके अनुज भी अनुसरण कर,
सभी को छोड़, सेवा को वरण कर!

कहा प्रभु ने कि--"भाई! बात मानो,
पिता की ओर देखो, हठ न ठानो।"
कहा सौमित्रि ने कर जोड़ कर तब--
"रहा यह दास तुमको छोड़ कर कब?
रहे क्या आज जाता देख वन को?
करो दोषी न इतना नाथ! जन को।
तुम्हीं माता, पिता हो और भ्राता,
तुम्हीं सर्वस्व मेरे हो विधाता।
रहूँगा मैं, कहोगे तो रहूँगा,
नरक की यातना को भी सहूँगा।
विनश्वर जीव होता तो न सहता,
तदपि क्या रह सकेगा देह दहता?
कला, क्रीड़ा, कुतुक, मृगयाऽभिनय में,
सभा-संलाप, निर्णय और नय में,
जिसे है साथ रक्खा नाथ! तुमने,
उसीसे आज खींचा हाथ तुमने!
यहाँ मेरे बिना क्या रुक रहेगा?
न अपना भार भी यह तन सहेगा।
तुम्हीं हो एक अन्तर्वाह्य मेरे,
नहीं क्या फूल-फल भी ग्राह्य मेरे!
न रक्खो आज ही यदि साथ मुझको,
चले जाओ हटा कर नाथ! मुझको।
न रोकूँगा, रहूँगा जो जियूँगा,
अमृत जब है पिया, विष भी पियूँगा।"
हुए गद्गद यहीं रघुनन्दनानुज,
शिशिर-कण-पूर्ण मानों प्रातरम्बुज।
खड़े थे सूर्य-कुल के सूर्य सम्मुख,
न जानें देव समझे दुःख या सुख!
अनुज को देख सम्मुख दीन रोते,
दयामय क्या द्रवित अब भी न होते?
"अहो! कातर न हो, सौमित्रि! आओ,
सदा निज राम का अर्द्धांश पाओ।
यही है आज का-सा यह सबेरा,
मिटा राजत्व वन में भी न मेरा!
अनुज! मुझसे न तुम न्यारे कभी हो,
सुहृत्, सहचर, सचिव, सेवक सभी हो।"
बचे सौमित्रि मानों प्राण पाकर,
बची त्यों केकयी भी त्राण पाकर।
न रहना था न रखना था किसी को,
सहज सन्तोष कहते हैं इसी को।
निकल कर अग्रजानुज तब वहाँ से,
चले पर शब्द यह कैसा, कहाँ से?
"मुझे स्फुट मृत्यु-मुख में छोड़ कर यों,
चले हा पुत्र! तुम मुँह मोड़ कर, क्यों?
कहा प्रभु ने कि--"भाई! क्या करूँ मैं?
पिता का शोक यह कैसे हरूँ मैं?
हुआ है धैर्य सहसा नष्ट उनका,
चलो, कातर न कर दे कष्ट उनका।"
बढ़ा कर चाल अपनी और थोड़ी,
उन्होंने एक लम्बी साँस छोड़ी!
न थी अपने लिए वह साँस निकली,
फँसाती जो यहाँ वह फाँस निकली,
चले दोनों अलौकिक शान्तिपूर्वक--
कि आये थे यथा विश्रान्तिपूर्वक!
अजिर-सर के बने युग हंस थे वे,
स्वयं रवि-वंश के अवितंस थे वे।
झुका कर सिर प्रथम फिर टक लगाकर,
निरखते पार्श्व से थे भृत्य आकर।
यहीं होकर अभी यद्यपि गये थे,
तदपि वे दीखते सबको नये थे!
लगे माँ के महल को घूमने जब--
"जियो, कल्याण हो" यह सुन पड़ा तब।
सुमन्त्रागम समझ कर रुक गये वे,
"अहा! काका," विनय से झुक गये वे!
सचिववर ने कहा--"भैया! कहाँ थे?"
बताया राम ने उनको, जहाँ थे।
कहा फिर--"तात आतुर हो रहे हैं,
मिलो तुम शीघ्र, धीरज खो रहे हैं।"
हुई सुनकर सचिववर को विकलता,
रहा "क्यों?" भी निकलता ही निकलता।
अमंगल पूछना भी कष्टमय है,
न जानें क्या न हो, अस्पष्ट भय है।
न थी गति किन्तु बोले वे--"हुआ क्या?
हमें भी अब विकारों ने छुआ क्या?
मुझे भी हो रहा था सोच मन में,
अभी तक आज नृप क्यों हैं शयन में!
बुलाऊँ वैद्य या मैं देख आऊँ,
सभागत सभ्यगण को क्या बताऊँ?
कुशल हो, विघ्न होते गूढ़तर यों,
इधर तुम जा रहे हो लौटकर क्यों?"