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साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / दशम सर्ग / पृष्ठ ५

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सुख-शान्ति रहे स्वदेश की,
यह सच्ची छवि क्षात्र वेश की।
कृषि-गो-द्विज-धर्म-वृद्धि हो,
रिपु से रक्षित राज्य-ऋद्धि हो।
प्रभु ने भय-मूर्त्ति बिद्ध की,
मुनि ने भी मख-पूर्त्ति सिद्ध की।
बहु राक्षस विघ्न से बने,
पर दो ने सब सामने हने।
विकराल बली सुबाहु था,
विधु थे ये न, सुबाहु राहु था।
उसके भुज केतु-से पड़े,
रवि से भी प्रभु किन्तु थे बड़े।
दल खेत रहा सभी वहाँ,
खल मारीच उड़ा, गया कहाँ?
मुनि हर्षित आज थे बड़े,
पर क्या दें, इस सोच में पड़े।
प्रभु का उपहार धर्म था,
ध्रुव निष्काम स्वकीय कर्म था।
मुनि का जय-पूर्ण घोष था,
पर यों ही उनको न तोष था।
सरयू, वर-देव थे यही,
वरदर्शी पितृ-वाक्य था सही--
’वर-देव अवश्य हैं--बढ़ें,
अपनी ये कलियाँ जिन्हें चढ़ें।’
सच को किस ओर आँच है,
पर आवश्यक एक जाँच है।
सुपरीक्षक सिद्ध आप था
वर का, जो वह शम्भु चाप था।
स्थिर था यह तात ने किया--
’जिसने खींच इसे चढ़ा दिया,
पण-रूप, वही रणाग्रणी,
वर लेगा यह मैथिली-मणि!’

अब भूपति-वृन्द आ चला,
विचली-सी मिथिला महाचला।
जन - सिन्धु-तरंग - वेष्टिता
नगरी थी अब द्वीप-चेष्टिता।
’भव की यह भेंट भुक्ति लो,
वह सीता, वह मुक्ति-युक्ति दो!’
फिरता मन था उड़ा उड़ा,
मिथिला में भव-संघ था जुड़ा।
कहता भव-चाप--’आइये,
मुझ-सा निश्चल चित्त लाइये।
तन का बल ही न तोलिए,
मन की भी वह गाँठ खोलिए!’
वह रौद्र कटाक्ष-रूप था,
सहता जो, वह कौन भूप था?
भट रावण-बाण-से कटे,--
जिनसे थे सुर-शक्र भी हटे!

हँसतीं हम, खेल लेखतीं,
चढ़ अट्टों पर दृश्य देखतीं।
पर हा! वह मातृ-चित्त था,
चल जो सन्तति के निमित्त था।
सबको सब माँ सहेजतीं,
हमको पूजन-हेतु भेजतीं।
हमने कृतकृत्य हो लिये,--
वरदा ने वर भी बुला दिये!
ऋषि के मख-विघ्न टाल के,
निज वीर-व्रत पूर्ण पाल के,
मुनि की गृहिणी उवार के,
वर आये नर-रूप धार के!

सरयू, वह फुल्ल वाटिका
बन बैठी वर-वीथि-नाटिका!
युग श्यामल-गौर मूर्त्तियाँ,
हम दो की शत पुण्य-पूर्त्तियाँ।
सजते सब भूप न्यून थे,
चुनते वे मुनि-हेतु सून थे।
निज भूषण आप भानु है,
रखता दूषण क्या कृशानु है?
दृग दर्शन-हेतु क्या बढ़े,
उन पैरों पर फूल-से चढ़े!
उनकी मुसकान देख ली,
अपनी स्वीकृति आप लेख ली।
’नभ नील अनन्त है अहा!’
धर जीजीधन ने मुझे कहा--