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साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / नवम सर्ग / पृष्ठ ७

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सखि, मेरी धरती के करुणांकुर ही वियोग सेता है,
यह औषधीश उनको स्वकरों से अस्थिसार देता है!

जन प्राचीजननी ने शशिशिशु को जो दिया डिठौना है,
उसको कलंक कहना, यह भी मानों कठोर टौना है!

सजनी, मेरा मत यही, मंजुल मुकुर मयंक,
हमें दीखता है वहाँ अपना राज्य-कलंक!

किसने मेरी स्मृति को
बना दिया है निशीथ में मतवाला?
नीलम के प्याले में
बुद्बुद दे कर उफन रही वह हाला!

सखि, निरख नदी की धारा,
ढलमल ढलमल चंचल अंचल, झलमल झलमल तारा!
निर्मल जल अंतःस्थल भरके,
उछल उछल कर, छल छल करके,
थल थल तरके, कल कल धरके,
बिखराता है पारा!
सखि, निरख नदी की धारा।
लोल लहरियाँ डोल रही हैं,
भ्रू-विलास-रस घोल रही हैं,
इंगित ही में बोल रही हैं,
मुखरित कूल-किनारा!
सखि, निरख नदी की धारा।
पाया,--अब पाया--वह सागर,
चली जा रही आप उजागर।
कब तक आवेंगे निज नागर
अवधि-दूतिका-द्वारा?
सखि, निरख नदी की धारा।
मेरी छाती दलक रही है,
मानस-शफरी ललक रही है,
लोचन-सीमा छलक रही है,
आगे नहीं सहारा!
सखि, निरख नदी की धारा।

सखी, सत्य क्या मैं घुली जा रही?
मिलूँ चाँदनी में, बुरा क्या यही?
नहीं चाहते किन्तु वे चाँदनी,
तपोमग्न हैं आज मेरे धनी।

नैश गगन के गात्र में पड़े फफोले हाय!
तो क्या मैं निःश्वास भी न लूँ आज निरुपाय?

तारक-चिन्हदुकूलिनी पी पी कर मधु मात्र,
उलट गई श्यामा यहाँ रिक्त सुधाकर-पात्र।

[२]
यदपि काल है काल अन्त में,
उष्ण रहे चाहे वह शीत,
आया सखि हेमन्त दया कर
देख हमें सन्तप्त-सभीत।
आगत का स्वागत समुचित है, पर क्या आँसू लेकर?
प्रिय होते तो लेती उसको मैं घी-गुड़ दे देकर।

पाक और पकवान रहें, पर
गया स्वाद का अवसर बीत,
आया सखि, हेमन्त दया कर,
देख हमें सन्तप्त-सभीत।
हे ऋतुवर्य, क्षमा कर मुझको, देख दैन्य यह मेरा,
करता रह प्रति वर्ष यहाँ तू फिर फिर अपना फेरा।

ब्याज-सहित ऋण भर दूँगी मैं ,
आने दे उनको हे मीत,
आया सखि, हेमन्त दया कर,
देख हमें सन्तप्त-सभीत।
सी सी करती हुई पार्श्व में पाकर जब-तब मुझको,
अपना उपकारी कहते थे मेरे प्रियतम तुझको।

कंबल ही संबल है अब तो,
ले आसन ही आज पुनीत,
आया सखि, हेमन्त दया कर,
देख हमें सन्तप्त-सभीत।
कालागरु की सुरभि उड़ा कर मानों मंगल तारे,
हँसे हंसन्ती में खिल खिल कर अनल-कुसुम अंगारे।
आज धुकधुकी में मेरी भी
ऐसा ही उद्दीप्त अतीत!
आया सखि, हेमन्त दया कर,
देख हमें सन्तप्त-सभीत।

अब आतप-सेवन में कौन तपस्या, मुझे न यों छल तू;
तप पानी में पैठा, सखि, चाहे तो वहीं चल तू!

नाइन, रहने दे तू, तेल नहीं चाहिए मुझे तेरा,
तनु चाहे रूखा हो, मन तो सुस्नेह-पूर्ण है मेरा।

मेरी दुर्बलता क्या
दिखा रही तू अरी, मुझे दर्पण में?
देख, निरख मुख मेरा
वह तो धुँधला हुआ स्वयं ही क्षण में!

एक अनोखी मैं ही
क्या दुबली हो गई सखी,घर में?
देख, पद्मिनी भी तो
आज हुई नालशेष निज सर में।

पूछी थी सुकाल-दशा मैंने आज देवर से--
कैसी हुई उपज कपास, ईख, धान की?
बोले--"इस बार देवि, देखने में भूमि पर
दुगुनी दया-सी हुई इन्द्र भगवान की।
पूछा यही मैं ने एक ग्राम में तो कर्षकों ने
अन्न, गुड़, गोरस की वृद्धि ही बखान की,
किन्तु ’स्वाद कैसा है, न जानें, इस वर्ष हाय!’
यह कह रोई एक अबला किसान की!"