साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / प्रथम सर्ग / पृष्ठ ६
अवयवों की गठन दिखला कर नई,
अमल जल पर कमल-से फूले कई।
साथ ही सात्विक-सुमन खिलने लगे,
लेखिका के हाथ कुछ हिलने लगे!
झलक आया स्वेद भी मकरन्द-सा,
पूर्ण भी पाटव हुआ कुछ मन्द-सा।
चिबुक-रचना में उमंग नहीं रुकी,
रंग फैला, लेखनी आगे झुकी।
एक पीत-तरंग-रेखा-सी बही,
और वह अभिषेक-घट पर जा रही!
हँस पड़े सौमित्रि भावों से भरे;
उर्मिला का वाक्य था केवल "अरे!"
"रंग घट में ही गया, देखा रहो,
तुम चिबुक धरने चलीं थीं, क्यों न हो?"
उर्मिला भी कुछ लजा कर हँस पड़ी,
वह हँसी थी मोतियों की-सी लड़ी।
"बन पड़ी है आज तो!" उसने कहा--
"क्या करूँ, बस में न मेरा मन रहा।
हार कर तुम क्या मुझे देते कहो?
मैं वही दूँ, किन्तु कुछ का कुछ न हो।"
हाथ लक्ष्मण ने तुरन्त बढ़ा दिये,
और बोले--"एक परिरम्भण प्रिये!"
सिमिट-सी सहसा गई प्रिय की प्रिया,
एक तीक्ष्ण अपांग ही उसने दिया।
किन्तु घाते में उसे प्रिय ने किया,
आप ही फिर प्राप्य अपना ले लिया!
बीत जाता एक युग पल-सा वहाँ,
सुन पड़ा पर हर्ष-कलकल-सा वहाँ।
द्वार पर होने लगी विरुदावली;
गूँजने सहसा लगी गगनस्थली।
सूत, मागध, वन्दिजन यश पढ़ उठे,
छन्द और प्रबन्ध नूतन गढ़ उठे।
मुरज, वीणा, वेणु आदिक बज उठे;
विज्ञ वैतालिक सुरावट सज उठे।
दम्पती चौंके, पवन-मण्डल हिला;
चंचला-सी छिटक छूटी उर्मिला।
तब कहा सौमित्रि ने--"तो अब चलूँ,
याद रखना किन्तु जो बदला न लूँ?
देखने कुल-वृद्धि-सी पाताल से,
आ गये कुलदेव भी द्रुत चाल से।
दिन निकल आया, बिदा दो अब मुझे;
फिर मिले अवकाश देखूँ कब मुझे?"
उर्मिला कहने चली कुछ, पर रुकी,
और निज अंचल पकड़ कर वह झुकी।
भक्ति-सी प्रत्यक्ष भू-लग्ना हुई,
प्रिय कि प्रभु के प्रेम में मग्ना हुई।
चूमता था भूमितल को अर्द्ध विधु-सा भाल;
बिछ रहे थे प्रेम के दृग-जाल बन कर बाल।
छत्र-सा सिर पर उठा था प्राणपति का हाथ;
हो रही थी प्रकृति अपने आप पूर्ण सनाथ।
इसके आगे? बिदा विशेष;
हुए दम्पती फिर अनिमेष।
किन्तु जहाँ है मनोनियोग,
वहाँ कहाँ का विरह वियोग?