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साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / षष्ठ सर्ग / पृष्ठ १

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षष्ठ सर्ग

तुलसी, यह दास कृतार्थ तभी--
मुँह में हो चाहे स्वर्ण न भी,
पर एक तुम्हारा पत्र रहे,
जो निज मानस-कवि-कथा कहे।

उपमे, यह है साकेत यहाँ,
पर सौख्य, शान्ति, सौभाग्य कहाँ?
इसके वे तीनों चले गये,
अनुगामी पुरजन छले गये।

पुरदेवी-सी यह कौन पड़ी?
उर्मिला मूर्च्छिता मौन पड़ी।
किन तीक्ष्ण करों से छिन्न हुई--
यह कुमुद्वती जल-भिन्न हुई?
सीता ने अपना भाग लिया,
पर इसने वह भी त्याग दिया।
गौरव का भी है भार यही,
उर्वी भी गुर्वी हुई मही।
नव वय में ही विश्लेष हुआ;
यौवन में ही यति-वेष हुआ।
किस हत विधि का यह योग हुआ,
सुख-भोग भयंकर रोग हुआ।
होता है हित के लिए सभी,
करते हैं हरि क्या अहित कभी?
इसमें क्या हित है, कहें जिसे,
बतलावेगा बस समय इसे।
भर भर कर भीति-भरी अँखियाँ,
करती थीं उसे सजग सखियाँ।
पर शोक भयंकर खरतर था,
चैतन्य मोह से बढ़ कर था।
वह नई बधू भोली-भाली,
जिसमें सु-राग की थी लाली,
कुम्हलाई यथा कैरवाली,
या ग्रस्त चन्द्र की उजियाली।
मुख-कान्ति पड़ी पीली पीली,
आँखें अशान्त नीली नीली।
क्या हाय! यही वह कृशकाया,
या उसकी शेष सूक्ष्म छाया?
सखियाँ अवश्य समझाती थीं,
आँखें परन्तु भर आती थीं।
बोली सुलक्षणा नाम सखी--
"है धीरज का ही काम सखी!
विधि भी न रहेगा वाम सखी,
फिर आवेंगे श्रीराम सखी!
नृप ने सुमन्त्र को भेजा है,
मृगयोचित साज सहेजा है।
यह कहा है कि ’श्रीराम बिना,
जावेगा पल पल वर्ष गिना।
होंगे यथेष्ट चौदह पल ही,
ले आना उन्हें आज कल ही।’
इस लिए न इतना सोच करो,
अब भी आशा है, धैर्य धरो।"
बोली उर्म्मिला विषादमयी--
"सब गया, हाय! आशा न गई।
आशे, निष्फल भी बनी रहो,
तुम हो हीरे की कनी अहो!
रखती हो मूल्य मार कर भी,
उज्वल हो अन्धकार कर भी!
अब भी सुलक्षणे, आशा है?
यदि है, विश्वास-विनाशा है।
लौटेगें क्या प्रभु और बहन?
उनके पीछे--हा! दुःख दहन!
जो ज्ञाता हैं, वे जान चुके,
उनके महत्व को मान चुके।
जिस व्रत पर छोड़ गये सब वे,
लौटेगें उसे छोड़ अब वे?
निकली अभागिनी मैं ऐसी,
त्रैलोक्य में न होगी जैसी।
दे सकी न साथ नाथ का भी,
ले सकी न हाय! हाथ का भी!
यदि स्वामि-संगिनी रह न सकी,
तो क्यों इतना भी कह न सकी--
’हे नाथ, साथ दो भ्राता का,
बल रहे मुझे उस त्राता का।
है त्राण आज भी इष्ट मुझे,
ये प्राण आज भी इष्ट मुझे।
रह कर वियोग से अस्थिर भी,
देखूँ मैं तुम्हें यहाँ फिर भी।
है प्रेम स्वयं कर्तव्य बड़ा,
जो खींच रहा है तुम्हें खड़ा।
यह भ्रातृ-स्नेह न ऊना हो,
लोगों के लिए नमूना हो।
सुन कर जीजी की मर्म-कथा,
गिर पड़ी मैं, न सह सकी व्यथा।
वह नारि-सुलभ दुर्बलता थी,
आकस्मिक-वेग-विकलता थी।
करना न सोच मेरा इससे,
व्रत में कुछ विघ्न पड़े जिससे।
आने का दिन है दूर सही,
पर है, बस अब अवलम्ब यही।
आराध्य युग्म के सोने पर,
निस्तब्ध निशा के होने पर,
तुम याद करोगे मुझे कभी,
तो बस फिर मैं पा चुकी सभी।’
प्रिय-उत्तर भी सुन सकी न मैं,
निज चिर गति भी चुन सकी न मैं।
यह दीर्घ काल काटूँ जिससे,
पूछूँ अब हाय! और किससे!
सजनी सुलक्षणे, धैर्य धरूँ,
तो कहो क्या करूँ, क्या न करूँ?
जिससे महत्व से मण्डित फिर,
देखूँ वह विकसित वदन रुधिर।
मैं अपने लिए अधीर नहीं,
स्वार्थी यह लोचन-नीर नहीं।
क्या से क्या हाय! हो गया यह,
रस में विष कौन बो गया यह।
जो यों निज प्राप्य छोड़ देंगे--
अप्राप्य अनुग उनके लेंगे?